चोटी की पकड़–65
राजा साहब ने देखा कि एजाज का मिज़ाज उखड़ा-उखड़ा है, उन्होंने साजिंदों को रुखसत कर दिया।
प्रभाकर को भोजन कराना था, इसलिए बैठाले रहे। काट कुछ गहरा चल गया था; यानी एजाज को राजा साहब चाहते थे, पर दिल देकर नहीं; अगर दिल देकर भी कहें तो भेद बतलाते हुए नहीं।
सिर्फ कला-प्रेम था या रूप और स्वर का प्रेम जो रुपए से मिलता है।
यही हाल एजाज का। उसके पास धन था, रूप और स्वर भी, पर तारीफ न थी, यह दूसरों से मिलती थी, और उन्हीं लोगों से जो रूप, स्वर और यौवन खरीद सकते हैं।
षोडशी होकर जिस समूह में वह चक्कर काटती थी, वह कैसा था, आज प्रभाकर को देखकर उसकी समझ में आया। वह बड़प्पन कितना बड़ा छुटपन है, राजा साहब के बर्ताव से परिचित हुआ।
प्रभाकर को न देखने पर वह समझ न पाती कि आदमी की असलियत क्या है। आजकल जैसे उस छुटपन वाले बड़प्पन से उसका छुटकारा न था।
आज के परिवर्तन के साथ प्रभाकर का प्रकाश उसके दिल में घर करता गया। खेल और मज़ाक़ दिल नहीं। किसी को बनाना और किसी को बिगाड़ना दिलगीरी नहीं, सौदा है।
जो कुछ भी अब तक उसने किया वह एक बचत थी। असलियत क्या थी, कहाँ थी, वह नहीं समझ पायी। आज भी नहीं समझी। सिर्फ उसे दिल नहीं माना। टूटी जा रही थी।
असलियत असलियत से मिल गई। प्रभाकर की जैसी शालीनता उसने किसी में नहीं देखी। जो बातचीत सुन चुकी है, उससे अगर इस आदमी का तअल्लुक है तो ग़जब है यह आदमी -'स्वदेशी !'